Mahatma Gandhi Jayanti : महात्मा गांधी ने क्यों हमेशा के लिए छोड़ दिया नमक खाना ? मनाने पर भी नहीं पिघले
महात्मा गांधी (मोहनदास करमचंद गांधी) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे प्रमुख नेता और एक महान समाज सुधारक थे। उनका जन्म 2 अक्टूबर 1869 को पोरबंदर, गुजरात में हुआ था। गांधीजी ने सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों के आधार पर भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया, जिसे बाद में “सत्याग्रह” के नाम से जाना गया।
महात्मा गांधी के प्रमुख योगदान
- स्वतंत्रता संग्राम: गांधीजी ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन, और भारत छोड़ो आंदोलन जैसी महत्वपूर्ण गतिविधियों का आयोजन किया।
- सत्य और अहिंसा: उनका मानना था कि हिंसा के बजाय सत्य और अहिंसा के माध्यम से ही बड़े बदलाव संभव हैं। उन्होंने अपने पूरे जीवन में इन सिद्धांतों का पालन किया।
- नमक सत्याग्रह (डांडी मार्च): 1930 में गांधीजी ने ब्रिटिश नमक कानूनों के खिलाफ डांडी मार्च का नेतृत्व किया, जिसमें उन्होंने 240 मील की यात्रा करके नमक बनाया और ब्रिटिश कानून को चुनौती दी।
- हरिजन आंदोलन: गांधीजी ने जाति व्यवस्था के खिलाफ काम किया और विशेष रूप से दलितों (जिन्हें उन्होंने ‘हरिजन’ कहा) के उत्थान के लिए प्रयास किए।
- ग्रामीण स्वराज: उनका सपना एक ऐसे समाज का था जहां सभी गांव आत्मनिर्भर हों और विकेंद्रीकरण के माध्यम से सभी को समान अवसर मिलें।
गांधीजी की मृत्यु
30 जनवरी 1948 को, महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई थी। उन्हें एक हिंदू कट्टरपंथी नाथूराम गोडसे ने गोली मार दी थी।
महात्मा गांधी की विरासत आज भी प्रेरणादायक है और उनका जीवन सत्य, अहिंसा, और मानवता की महान मिसाल है।
महात्मा गांधी बैरिस्टरी के बाद निराशा का दौर
महात्मा गांधी के जीवन में बैरिस्टरी की पढ़ाई के बाद एक निराशा का दौर भी आया, जिसे उन्होंने आत्ममंथन और पुनर्निर्माण का समय बना लिया।
बैरिस्टरी की पढ़ाई
गांधीजी ने 1888 में इंग्लैंड जाकर कानून की पढ़ाई की और 1891 में बैरिस्टर बनकर भारत लौटे। भारत लौटने के बाद उन्होंने मुंबई में वकालत शुरू की, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके बाद उन्होंने राजकोट में वकालत करने का प्रयास किया, लेकिन वहां भी ज्यादा काम नहीं मिला। इसी दौर को गांधीजी ने अपने जीवन का निराशाजनक दौर कहा है।
निराशा का कारण
- प्रोफेशनल असफलता: बैरिस्टरी की पढ़ाई के बाद भी उन्हें शुरुआत में वकालत में ज्यादा सफलता नहीं मिली।
- आत्म-संघर्ष: इस समय गांधीजी अपनी पहचान और भविष्य को लेकर चिंतित थे। वह वकालत में नैतिकता और सच्चाई के सिद्धांतों पर समझौता नहीं करना चाहते थे, लेकिन उस समय की न्यायिक व्यवस्था में यह काफी चुनौतीपूर्ण था।
पुनर्निर्माण का दौर
इस निराशा के बाद 1893 में गांधीजी को एक मुकदमे के सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका जाने का अवसर मिला। यहां से उनका जीवन नया मोड़ लेता है। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए, गांधीजी को नस्लीय भेदभाव और अन्याय का सामना करना पड़ा, जिसने उन्हें सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता की ओर प्रेरित किया। यहीं से सत्याग्रह और अहिंसा के उनके सिद्धांत विकसित हुए।
यह दौर गांधीजी के जीवन में आत्मविश्लेषण और पुनर्निर्माण का समय था, जो बाद में उनके महान नेता बनने की नींव साबित हुआ।
महात्मा गांधी अफ्रीका से आई वो चिट्ठी
महात्मा गांधी को दक्षिण अफ्रीका में कई महत्वपूर्ण पत्र प्राप्त हुए, लेकिन खासकर एक चिट्ठी ने उनके जीवन को एक नई दिशा दी। यह चिट्ठी उन्हें दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश साम्राज्य के नस्लीय भेदभाव का सामना करने के अनुभवों के बाद मिली। इस चिट्ठी के माध्यम से उन्हें यह एहसास हुआ कि उनके अधिकारों की रक्षा और अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए शांतिपूर्ण और अहिंसात्मक आंदोलन की जरूरत है।
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी को एक भारतीय व्यापारी से एक पत्र प्राप्त हुआ था, जिसमें उन्हें वहां के भारतीय समुदाय के खिलाफ हो रहे अत्याचारों के बारे में बताया गया था। इस पत्र में उनसे यह आग्रह किया गया था कि वे कानूनी सहायता दें और दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के अधिकारों की रक्षा करें। इस चिट्ठी ने गांधीजी को एक महत्वपूर्ण मिशन पर जाने के लिए प्रेरित किया, जिससे उनका सत्याग्रह का सिद्धांत उभरकर आया।
यह घटना गांधीजी के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने उन्हें न केवल दक्षिण अफ्रीका के संघर्ष में सक्रिय किया, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी उनका योगदान सुनिश्चित किया।
महात्मा गांधी क्यों हमेशा के लिए छोड़ दिया नमक खाना
महात्मा गांधी ने नमक का सेवन हमेशा के लिए छोड़ दिया था क्योंकि नमक उनके लिए सिर्फ एक खाद्य पदार्थ नहीं था, बल्कि ब्रिटिश हुकूमत के आर्थिक और राजनीतिक अत्याचार का प्रतीक बन गया था।
नमक सत्याग्रह की पृष्ठभूमि
1930 में ब्रिटिश सरकार ने भारत में नमक पर भारी कर लगाया था। नमक हर व्यक्ति की बुनियादी जरूरत थी, और इस पर कर लगाने का मतलब गरीबों पर आर्थिक बोझ डालना था। गांधीजी ने इसे अन्यायपूर्ण माना और इसके खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने दांडी मार्च शुरू किया, जो 12 मार्च 1930 को अहमदाबाद से दांडी तक 240 मील की यात्रा थी। इस यात्रा के अंत में गांधीजी ने समुद्र तट पर पहुंचकर नमक कानून का उल्लंघन करते हुए समुद्र के पानी से नमक बनाया।
नमक का त्याग
गांधीजी ने इस संघर्ष के बाद व्यक्तिगत रूप से नमक खाना छोड़ दिया। यह उनके द्वारा आत्मसंयम और अनुशासन का प्रतीक था। उन्होंने इस बात को अपने जीवन में लागू किया कि आत्मशुद्धि और व्यक्तिगत तपस्या बड़े राजनीतिक आंदोलनों का हिस्सा हो सकती है। नमक का त्याग एक प्रकार का अहिंसात्मक विरोध था, जो उनके जीवन में नैतिक आदर्शों के साथ जुड़ा हुआ था।
इस प्रकार, गांधीजी का नमक छोड़ना उनके सिद्धांतों और आदर्शों के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।